लेखक(जगदीश यादव)
जिस समाज में महिलाओं की आवाज़ अक्सर 'घर की बात' कहकर दबा दी जाती है, वहाँ **"मिसेज"** जैसी फिल्में एक साहसिक कदम हैं। यह फिल्म, जियो बेबी की मलयालम मास्टरपीस **"द ग्रेट इंडियन किचन"** का हिंदी रीमेक है, लेकिन यह केवल भाषा बदलने तक सीमित नहीं। यह भारतीय घरों की चारदीवारी में छिपे **सूक्ष्म पितृसत्तात्मक अत्याचार** को उसी तीखेपन से उजागर करती है, जिसे अक्सर 'सामान्य' मान लिया जाता है। निर्देशक **आरती कड़व** ने इस कहानी को उत्तर भारतीय मध्यवर्गीय परिवेश में इस तरह पिरोया है कि यह हर महिला के अनुभव का आईना बन जाती है।
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कहानी**सुहागन से सेविका तक का सफर:
फिल्म की नायिका **ऋचा (सान्या मल्होत्रा)** एक शिक्षित, स्वप्नदृष्टा महिला है, जिसका विवाह डॉ. दिवाकर (निशांत दहिया) से होता है। शादी के बाद का 'गुलाबी संसार' जल्दी ही धूमिल होने लगता है। ऋचा को एहसास होता है कि उसकी नई पहचान सिर्फ एक **'आदर्श बहू'** बनने तक सीमित है—जो सुबह 5 बजे उठकर ताज़ा रोटियाँ बनाए, हाथ से कपड़े धोए, और पति के सुख को ही अपनी खुशी माने। उसकी डिग्री, नृत्य का शौक, या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ सब **'घर की शांति'** के आगे बेमानी हैं।
यहाँ पुरुषों की हिंसा चिल्लाने या मारने में नहीं, बल्कि **मौन अपेक्षाओं** में छिपी है। दिवाकर और उसके पिता (कंवलजीत सिंह) 'सभ्य' पुरुष हैं, लेकिन उनकी मानसिकता में पत्नी एक **सेवा-यंत्र** है। ऋचा से कहा जाता है, *"तुम्हारी माँ ने तुम्हें कुछ सिखाया नहीं?"* यह वाक्य भारतीय समाज की उस मानसिकता को दर्शाता है, जहाँ लड़कियों को 'दूसरे के घर जाने के लिए तैयार' करने का अर्थ है उनकी अस्मिता को कुंद कर देना।
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पितृत्व चेहरा जो दिखता नहीं, कचोटता है
फिल्म की ताकत है **'सामान्य' दिखने वाले व्यवहारों की पोल खोलना**। जैसे—
- पति का ऋचा के हाथ के बने खाने को "मम्मी जैसा स्वाद" कहकर तारीफ करना, मगर यह नोटिस करने से इनकार करना कि वह थककर चूर हो रही है।
- सास का यह सलाह देना कि *"पति की गलतियाँ माफ कर दिया करो, यही तो स्त्री धर्म है।"*
- घर की महिलाओं का पुरुषों के भोजन के बाद बचे खाने पर गुज़ारा करना।
ये दृश्य बताते हैं कि पितृसत्ता सिर्फ पुरुषों की नहीं, बल्कि **पूरे सिस्टम की मिलीभगत** है, जो स्त्री को हीन बनाए रखने के लिए 'संस्कृति' और 'परंपरा' के नाम पर ढाँचे में ढालता है।
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अभिनय* चेहरा पर दिखता संघर्ष:
- **सान्या मल्होत्रा** ने ऋचा के भीतर के **मूक विद्रोह** को बिना ड्रामा किए अदा किया है। एक दृश्य में वह रसोई में खड़े-खड़े अपने नृत्य के जूते उतारती है—यह इशारा उसके सपनों के दफन होने का प्रतीक है।
- **निशांत दहिया** का डॉ. दिवाकर वह पति है जो खुद को 'प्रगतिशील' समझता है, लेकिन अपने विशेषाधिकारों पर सवाल नहीं उठाता। उनकी बॉडी लैंग्वेज—जैसे अखबार पढ़ते हुए ऋचा से चाय मँगाना—एक **सहज अहंकार** दिखाती है।
- **कंवलजीत सिंह** के संवाद, *"लड़कियाँ इतनी पढ़-लिखकर भी घर संभालना भूल जाती हैं,"* समाज की उस सोच को उजागर करते हैं जो स्त्री की शिक्षा को केवल 'रिज़्यूमे बढ़ाने' तक सीमित मानती है।
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निर्देशक और निर्माता:
आरती कड़व ने मूल कहानी को हिंदी पट्टी के संदर्भ में ढालते हुए भी उसकी **क्रूर ईमानदारी** बनाए रखी है। कुछ दृश्यों में वह मलयालम संस्करण जितनी तल्खी नहीं दिखातीं (जैसे मासिक धर्म के दौरान अछूत माने जाने का प्रसंग हल्का किया गया है), पर यह रीमेक अपने **भावनात्मक प्रभाव** में कम नहीं। रसोईघर की **सिनेमैटोग्राफी**—जहाँ चूल्हे की आग ऋचा के मन की आग का प्रतिबिंब बनती है—दर्शक को उसकी घुटन महसूस कराती है।
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निष्कर्ष:
यह फिल्म उन सभी महिलाओं के लिए है जो रोज़ अपने सपनों को मारकर 'अच्छी बहू' बनने को मजबूर हैं। यह पूछती है: *"क्यों एक स्त्री को सिर्फ त्याग और समर्पण की मूरत बनना पड़ता है?"* और पुरुषों से सवाल करती है: *"क्या आपने कभी अपने विशेषाधिकारों पर विचार किया है?"*
**"मिसेज"** सिनेमा हॉल से निकलकर आपके घर तक चली आती है। यह उस दीवार पर चोट करती है, जिसे हम 'परिवार' कहकर पवित्र मान लेते हैं। फिल्म के अंत तक, ऋचा का **मौन टूटता है**—और शायद दर्शकों का भी।
इसे देखना सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि **सामाजिक जिम्मेदारी** है। क्योंकि जब तक हम 'सामान्य' को चुनौती नहीं देंगे, पितृसत्ता की जड़ें नहीं कटेंगी।
फिल्म की यह कहानी, 40 साल पहले की है। इस समय ऐसा कुछ भी नहीं है। फिल्म करने 40 साल पहले की घटनाओं को पर्दे पर उतरने की कोशिश की है। आजकल मर्द औरतों पर इस तरह का कोई अत्याचार नहीं करते हैं।
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